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जीवन की डोर

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एक सन्त थे ,जो एक छोटे आश्रम का संचालन करते थे !

एक  दिन पास के ही रास्ते से

एक राहगीर को पकड़ करके अन्दर ले आये !

और शिष्यों के सामने उस से प्रश्न किया,

कि यदि तुम्हें सोने की अशर्फियों की एक थैली,

रास्ते में, पड़ी मिल जाए ; तो तुम क्या करोगे ?

वह आदमी बोला –

“मैं तत्क्षण उसके मालिक का पता लगा कर

उसे वापस कर दूँगा अन्यथा राज-कोष में जमा करा दूँगा !

सन्त हँसे और राहगीर को विदा कर के शिष्यों से बोले – 

“यह आदमी मूर्ख है !”

शिष्य बड़े हैरान कि गुरुजी क्या कह रहे हैं ?

इस आदमी ने ठीक ही तो कहा है तथा

सभी को ही यह सिखाया गया है –

कि ऐसे किसी परायी वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिए !

थोड़ी देर बाद

फिर सन्त किसी दूसरे को अन्दर ले आये और

उस से भी वही प्रश्न दोहरा दिया !

उस दूसरे राहगीर ने उत्तर दिया कि

क्या मुझे निरा मूर्ख समझ रखा है ?

जोकि स्वर्ण मुद्राएँ पड़ी मिलें और

मैं लौटाने के लिए मालिक को खोजता फिरूँ ?

तुम ने मुझे समझा क्या है ?

वह राहगीर जब चला गया – तो सन्त ने कहा,

“यह व्यक्ति शैतान है !”

तो शिष्य बड़े हैरान हुए कि

पहला मूर्ख और दूसरा शैतान,

फिर गुरु जी चाहते क्या हैं ?

अबकी बार सन्त

तीसरे राहगीर को पकड़ कर अन्दर ले आये और

वही प्रश्न दोहराया !

तो उस राहगीर ने बड़ी ही सज्जनता से यह उत्तर दिया,

“महाराज ! अभी तो कुछ कहना बड़ा मुश्किल है !

इस चाण्डाल मन का क्या भरोसा – कब धोखा दे जाए ?

एक क्षण की खबर नहीं !

यदि परमात्मा की कृपा रही और सद्बुद्धि बनी रही,

तो लौटा दूँगा !”

सन्त बोले – “यह आदमी ही सच्चा है !

इसने अपनी डोर परमात्मा को सौंप रखी है ;

ऐसे व्यक्तियों द्वारा कभी भी गलत निर्णय नहीं होता !”

ज्येष्ठ पाण्डव, सूर्य-पुत्र कर्ण,

तो कर्म, धर्म का ज्ञाता था !

क्या कारण था कि

वह अपने छोटे भाई अर्जुन से हार गया

जबकि कर्म और धर्म दोनों में वह अर्जुन से श्रेष्ठ था ! कारण था कि

अर्जुन ने तो अपने घर से निकलने से पहले ही

अपने जीवन रथ की डोरी,

भगवान श्री कृष्ण के हाथ में दे दी थी !

हमें भी इसी प्रकार अपने मन तथा जीवन की डोर गुरु-परमात्मा के हाथ में दे देनी चाहिए !

एक दिन वह सैर से लौट रहें थें तो उनके पीछे एक कुतिया और उसका बच्चा आने लगें । पहले तो उन्होंने अनदेखा कर दिया। पर जब वो घर तक पहुँच गए तो उन्होंने दोनों को दूध और ब्रेड खिलाई। इस तरह कई दिन होता रहा और एक दिन दोनों प्राणी मोहवश अंदर आ गए और फ़िर वे भी उसी घर के सदस्य बन गए । दोनों को भी नाम दे दिया गया, झूरी और झबला । ऐसे ही किसी अन्य दिन कामतानाथ जी ने पार्क में घायल बंदरिया के बच्चे की मरहम पट्टी कर दीं तो वह भी अपने बच्चे को लेकर उनके साथ हो लीं। और नाम मिला, चिंकी और टीलू ।

समय अपनी गति से गुज़रता जा रहा है । अब तो सभी प्राणी कामतानाथ जी के पूरे घर में उनके साथ विचरण करते , छत से लेकर, ग्राउंड फ्लोर जिसका जहाँ मन करता है, वहाँ रहता है । झबला, झूरी, चिंकी और टीलू तो उनके साथ ही सोते। पक्षियों का परिवार भी बढ़ता जा रहा है । सब बड़े आनंद से उनके साथ अपने दिन गुज़ार रहें हैं । उनकी बेटी को पता चला तो उसने गुस्सा करते हुए कहा कि आपने घर को चिड़िया घर बना दिया है ।

इतने बड़े मकान को किराए पर चढ़ाते तो कुछ किराया भी मिलता । और वह हँसकर उसकी बात का ज़वाब देते हुए कहते, तुम्हारे कहने पर मैंने किराएदार तो नहीं पर हाँ रिश्तेदार जरूर रख लिए है । फ़िर भी तुम्हें परेशानी हो रही हैं ।

इसी तरह अपने इन्हीं रिश्तेदारों के साथ उन्होंने पूरे दो-ढाई साल गुज़ार दिए। और एक दिन जब झबला ने उन्हें सैर पर चलने के लिए उठाया तो वह नहीं हिले । उसकी माँ झूरी ने उन्हें बहुत चाटा पर तब भी उनके शरीर ने कोई हरकत नहीं की । दोनों ने भोंक-भोंक कर शोर मचाया तो बाकी रिश्तेदार भी इकठ्ठे हो गए। चिंकी अपनी छत से सोहम की छत पर पहुँचकर उसे उसके घर से कुरता खीँचकर बुला लाई ।

सोहम छत से कूदता हुआ नीचे वाले कमरे में पहुँचा और कामतानाथ जी को उठाया और फिर ताला खोलकर डॉक्टर को बुला लाया। डॉक्टर के बताने पर कि कामतानाथ जी नहीं रहें। उसने उनके बेटी-दामाद को फ़ोन किया और वे दोनों यह ख़बर सुनते ही भारत पहुंच गए ।

उसने घर में आकर देखा तो वह हैरान हो गई । कितने कबूतर, चिड़ियाँ, गौरैया के साथ-साथ बंदर और कुत्ते सभी उनके आसपास ग़मगीन होकर बैठे हुए है। गिलहरी उनके माथे को सहला रहीं हैं । चिड़ियाँ अपनी चोंच से प्लास्टिक के चमच्च से उनके बंद मुँह में पानी डाल रहीं है । यह सब आपके पापा ने इन्हे सिखाया है । सोहम नम आँखों से बोला। चिंकी बंदरिया ने ही मुझे आपके पापा के बारे में बताया था। निधि की तो रुलाई फूट पड़ी । उसके पति अनिल ने उसे होंसला दिया । शमशान घाट पर कोई उड़कर पहुंचा और कोई चलकर पहुँचा । रिश्तेदार के नाम पर निधि के ससुराल वाले और कुछ कामतानाथ जी के पुराने परिचित ही पहुँच पाये । कामतानाथ जी और उनकी पत्नी सरला दोनों एकलौते थें और दूर के किसी रिश्तेदार को निधि जानती नहीं थीं।

चौथे के बाद ही सब चले गए और घर में रह गए, निधि और उसका पति और वो सभी जीव-जंतु। घर का क्या करना है ? अनिल ने पूछा । करना क्या है ? पापा के रिश्तेदार रहेंगे । अनिल उसकी बात सुनकर मुस्कुराने लगा पर उसका मतलब नहीं समझा । निधि ने एक एन.जी.ओ. से बात की और अपने 150 गज़ के पूरे घर को जीव-जंतु संरक्षण में बदल दिया। अब यहाँ हर प्रजाति के पशु-पक्षियों को संरक्षण मिलेगा और उनकी देखभाल भी होगी और घायल जीव-जंतुओ का ईलाज भी किया जायेगा । निधि और अनिल ने कई लोगों को इस संरक्षण केंद्र से जोड़ा ताकि प्राणी जगत को सुरक्षा और रहने का स्थान मिल सकें । और केंद्र का नाम रखा गया “कामतानाथ प्रसाद के रिश्तेदार’।”

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